ग़ज़ल
आंखों को मैं अपनी चुरा भी नहीं सकता
है जख्म जो सीने में दिखा भी नहीं सकता
मैं हूं के चरागों को बुझा भी नहीं सकता
परवाने को जलने से बचा भी नहीं सकता
होना है जो, हर हाल में होकर ही रहेगा
क्या-क्या नहीं होगा ये बात भी नहीं सकता
हर शख्स से मजबूत तो रिश्ता भी नहीं है
हर शख्स प हर चीज लूटा भी नहीं सकता
क्या उसको मनाने की कोई और है सूरत
सूरज को जमीं पर तो बुला भी नहीं सकता
रखने की उसे याद भी हाजत नहीं लेकिन
उस को किसी सूरत मैं भूला भी नहीं सकता
उस शख्स से क्या हाथ मिलाने की जरूरत
जिस शख्स को सीने से लगा भी नहीं सकता l
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